श्रीमद्भागवत गीता Shrimad Bhagwad Geeta Extracts
Briefed about Karma in a specific practical manner
*अध्य्याय:04*
*(ज्ञानकर्मसंन्यासयोग)*
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*श्लोक:०३*
*स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।*
*भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥*
*भावार्थ:*
तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है
॥3॥
*श्लोक:०४*
*अर्जुन उवाच अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।*
*कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥*
*भावार्थ:*
अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हाल का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आदि में हो चुका था। तब मैं इस बात को कैसे समूझँ कि आप ही ने कल्प के आदि में सूर्य से यह योग कहा था?
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The basics of Bhagwad Gita briefed in Tamil
*अध्य्याय:04*
*(ज्ञानकर्मसंन्यासयोग)*
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*श्लोक:०१*
( सगुण भगवान का प्रभाव और कर्मयोग का विषय )
*श्री भगवानुवाच*
*इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।*
*विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥*
*भावार्थ:*
श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा
॥1॥
*श्लोक:०२*
*एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।*
*स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥*
*भावार्थ:*
हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया
॥2॥
This school student expresses her knowledge about the significance of Bhagwat Gita
*अध्य्याय:03*
*(कर्मयोग)*
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*श्लोक:४३*
*एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।*
*जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥*
*भावार्थ:*
इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल
॥43॥
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः
॥3॥
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*अध्य्याय:03*
*(कर्मयोग)*
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*श्लोक:४१*
*तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।*
*पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥*
*भावार्थ:*
इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल
॥41॥
*श्लोक:४२*
*इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।*
*मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥*
*भावार्थ:*
इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है
॥42॥
अध्य्याय:04
(ज्ञानकर्मसंन्यासयोग)
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श्लोक:०५
श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥
भावार्थ:
श्री भगवान बोले- हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ
॥5॥
श्लोक:०६
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
भावार्थ:
मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ
अध्य्याय:02
(सांख्ययोग)
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*श्लोक:१५*
*यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।*
*समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥*
*भावार्थ:*
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है
॥15॥
*श्लोक:१६*
*नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।*
*उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः॥*
*भावार्थ:*
असत् वस्तु की तो सत्ता नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है
॥16॥
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*अध्य्याय:02*
*(सांख्ययोग)*
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*श्लोक:१७*
*अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।*
*विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥*
*भावार्थ:*
नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है
॥17॥
*श्लोक:१८*
*अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।*
*अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥*
*भावार्थ:*
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं, इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर
॥18॥
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*अध्य्याय:02*
*(सांख्ययोग)*
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*श्लोक:१९*
*य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।*
*उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥*
*भावार्थ:*
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी द्वारा मारा जाता है
॥19॥
*श्लोक:२०*
*न जायते म्रियते वा कदाचि-*
*न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।*
*अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-*
*न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥*
*भावार्थ:*
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता
॥20॥
श्रीमद्भागवत गीता
अध्य्याय:18
(मोक्षसंन्यासयोग)
श्लोक:४८
"सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।"
"सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥"
भावार्थ:
अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा है) को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं
॥48॥
श्लोक:४९
(ज्ञाननिष्ठा का विषय )
"असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।"
"नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति॥"
भावार्थ:
सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है
A European sister briefing the significance of Bhagwad Gita after she has read it throughly..
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